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दया के अभाव में त्याग तप निरर्थक : आचार्य विजय रत्नसेन सूरीश्वर


कोयम्बत्तूऱ. दुखी प्राणियों पर करुणा करना दया है। जिस प्रकार मूल के बिना वृक्ष टिक नहीं सकता। उसी प्रकार दया के बिना धर्म रूपी कल्प वृक्ष भी नहीं टिकता। दया के पालन के जरिए ही हम कल्प वृक्ष में जल का सिंचन कर सकते हैं। दया के अभाव में तप त्याग साधना निरर्थक है। जैसे हम जीना पसंद करते हैं जगत में सभी जीवों को भी जीना पसंद है, मरना कोई नहीं चाहता।

ये बातें आचार्य विजय रत्नसेन सूरीश्वर ने शुक्रवार को राजस्थानी संघ भवन में चातुर्मास प्रवचन में कही। उन्होंने कहा कि सभी धर्म अंहिसा के समर्थक हैं और सभी धर्मों में अन्य प्राणियों की रक्षा करने का उपदेश दिया गया है। सृष्टि का नियम है कि जैसा हम दूसरे जीवों को देते हैं वैसा ही हमें प्राप्त होता है। सुख देंगे तो सुख प्राप्त होगा। दुख देंगे तो दुख प्राप्त होगा। सुख-दुख की संवेदना ज्ञान चेतनत्व की अपेक्षा से जगत में विद्यमान सभी आत्माएं एक समान हैं। किसी पर हिंसा या वध करके हम अपना ही वध कर रहे हैं। अन्य जीव रक्षा ही आत्म सुरक्षा है और अन्य जीव हिंसा अपने आत्मा की हिंसा है। दया से सुख व निर्दय आचरण से दुख प्राप्त होता है।

आचार्य ने कहा कि शास्त्रों में भी लिखा है कि दया रूपी नदी किनारे त्याग, तप आदि हरे भरे रहते हैं। नदी के पानी के बहाव में जिस प्रकार किनारे के पेड़-पौधों में सिंचन हो जाता है और नदी का पानी सूखने पर पौधे भी गिर पड़ते हैं। वैसे ही दया के चले जाने पर त्याग,तप धर्म निरर्थक हो जाते हैं।

उन्होंने कहा कि मानवता के लिए ह्रदय में दया भाव जरुरी है, जिसका ह्रदय दुखी दीन को देख कर द्रवित नहीं होता उसका जीना निष्फल है। इतिहास बताता है कि कई महान पुरुषों ने छोटे-छोटे जीवों को बचाने के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर प्राणों तक के बलिदान दिए लेकिन आज हिंसा का तांडव हो रहा है। कृत्रिम सौंदर्य प्रसाधनों को तैयार करने के लिए जीव हिंसा हो रही है और यह शरीर के लिए नुकसानदायक होने के बावजूद इनका चलन बढऩा चिंता जनक है।

आचार्य ने कहा कि स्व प्राणों का त्याग देकर दूसरे जीव को बचाना तो दूर, निष्कारण हिंसा को भी नहीं छोड़ा जा रहा। हिंसा का फैलाव बढऩे से जीवन में अशांति व हिंसा बढ़ी है। १० व ११ अगस्त को आचार्य के प्रवचन जैन मैनर अपार्टमेंट मेंं होंगे। १० अगस्त को क्षत्रिय कुंड महातीर्थ की भावयात्रा होगी।

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