कोयम्बत्तूर.
आचार्य विजय रत्नसेन सूरीश्वर ने कहा कि दुनिया भ्रमणा है और सुख-दुख इंद्रीय शरीर के माध्यम से पता चलते हैं। वास्तविक सुख तो आत्मा का धर्म है जबकि हम मानते हैं कि इंद्रीय के अनुकूल विषय से सुख मिलता है और प्रतिकूल विषय पर दुख मिलता है।
आचार्य ने मंगलवार को बहुफणा पाश्र्वनाथ जैन ट्रस्ट के तत्वावधान में आरएस पुरम स्थित राजस्थानी संघ भवन में चल रहे चातुर्मास कार्यक्रम को संबोधित करते हुए कहा कि आंखों के सामने कोई सुंदर रूप आता है तो हमें सुख मिलता है और कोई बीमार व्यक्ति आता है तो हम उसे देखना भी पसंद नहीं करते।
आचार्य ने कहा कि मनोहर वाद्य यंत्र की आवाज हमें कर्णप्रिय लगती है। इस बीच कोई कौए जैसी आवाज को हम नापसंद करते हैं। बगीचे में खिले फू ल की खुशबू पसंद है जबकि गंदगी देख कर नाक सिकोड़ते हैं। इसी प्रकार चाहे वस्त्र हो या भोजन का स्वाद जो हमारी इंद्री को पसंद है वही हमेंं भाता है।
आचार्य ने कहा कि सुंदर, स्पर्श, रस, गंध, रूप विषय इंद्रीय हैं। इनके सुख में सुख अल्पता है। वास्तविक सुख तो आत्मा का है जो अनंत है। संसार को ेकेवल भौतिक सुख का ही अनुभव होता है। आत्मिक सुख का अनुभव मोक्ष में है। भौतिक सुखों का अनुभव शरीर व इंद्रियों से होता है जबकि आत्मा का सुख अनंत है व स्थायी है। मोक्ष में गई आत्मा का सुख सीमातीत है। उपमा के माध्यम से मोक्ष के सुख का वर्णन नहीं हो सकता।
अरिहंत की आज्ञा मोह के विष को उतारने के लिए परमतंत्र हैं। क्रोध-द्वेष की आग को शांत करने के लिए अरिहंत की आज्ञा शीतल जल समान है। कर्म रूपी व्याधि के उपचार के लिए अरिहंत आज्ञा श्रेष्ठ है। यह मोक्ष रूपी फल प्रदान करने वाला कल्पवृक्ष है। जो आत्मा अरिहंत की आज्ञा को भाव से स्वीकार करता है वह अल्प काल में संसार सागर पार कर लेता है।
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