कोयंबटूर ईरोड.
आचार्य रत्नसेन सूरिश्वर ने कहा कि मन में आत्मा व परमात्मा के प्रतिबिंब को झेलने का स्वभाव है। परंतु यह तभी संभव है जब मन शांत व स्थिर है। अशांत व अस्थिर मन में आत्मा व परमात्मा का प्रतिबिंब नजर नहीं आ सकता।
आचार्य ने गुरूवार को ईरोड स्थित जैन भवन में धर्मसभा को संबोधित करते हुए कहा पानी में प्रतिबिंब नजर आता है लेकिन इसके लिए भी पानी को शांत व स्थिर होना जरुरी है। उबलते व हलचल वाले पानी में कोई प्रतिबिंब नजर नहीं आता।
उन्होंने कहा कि हमारे मन में परमात्मा का प्रतिबिंब है तो स्वयं ही राग-द्वेष से दूर हो जाएंगे। आत्मा परम समाधि का उपयोग कर सकेगी। ऐसे में धन, स्वजन को छोडऩे में कोई अफसोस नहीं होगा। नश्वर शरीर को छोड़ते हुए भी मन विह्लल नहीं होगा। शरीर भाड़े का घर है इसे एक दिन छोडऩा है। उन्होने कहा कि गाड़ी मेंं सफर करते समय सीट का पूरा ख्याल रखते हैं लेकिन गंतव्य आने पर सीट को छोड़ दते है। इसका दुख नहीं होता कारण कि हम पहले से जानते हैं सफर इतना ही है।
आचार्य ने कहा कि शरीर व आत्मा भिन्न हैं। हम शरीर के कष्टों को ही आत्मा के कष्ट मानते हैं यह अनुचित है। इसलिए आत्मा के दुखों पर हमारा ध्यान नहीं जाता। शरीर को होने वाला दुख अच्छा है जबकि सुख खराब है, क्योंकि दुख हमारे पापों को नाश करते हैं। इसलिए धर्म अनुष्ठान में सुखों को छोडऩे की बात कही है। धन शरीर व इंद्रीय विषयों पर आसक्ति छोडऩे के लिए तप, दान, भाव व शील चार प्रकार के धर्म बताए गए हैं। स्वयं तीर्थंकर भगवान ने परिवार, सुख समृद्धि को छोड़ कर पापों को क्षय करने के लिए कष्टों को सहन किया। दुनिया सुख व दुख के साधनों को पाने की बात करती है जबकि धर्म सुख के साधनों को त्याग कर शाश्वस्त सुख को पाने के लिए प्रयत्नशील करने की बात करती है। सुबह नौ बजे प्रवचन यथावत होंगे व दोपहर २.४५ बजे व्याख्यान होगा।
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