कोयम्बत्तूर.
चातुर्मास में आराधना करना श्रेष्ठकारी है। इस दौरान धर्म में प्रवृत्ति व पाप कार्यों से निवृत्ति का श्रेष्ठ समय है। आराधना के बाद क्रोध अलंकार आदि किया जाए तो इस आराधना के सकारात्मक फल प्राप्त नहीं होते।
यह विचार सुपाश्र्वनाथ जैन आराधना भवन में सोमवार को जैन मुनि हितेशचंद्र विजय ने व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि व्यक्ति सदैव कुछ अच्छा होने पर स्वयं की मेहनत, बुद्धि व भाग्य का परिणाम बताया है लेकिन ईश्वर कृपा बिना कुछ नहीं है। मृत्यु के उपरांत सभी की स्वर्ग की इच्छा होती है लेकिन मौजूदा जीवन में सद्कर्म कर इसी जीवन को स्वर्ग बनाने का प्रयास करना चाहिए। तभी मानव जीवन सार्थक होगा।
मुनि हितेशचंद्र विजय ने कहा कि लोग पीठ पीछे बुराई न करें व सदा उसी के बारे में बात करें तो यह तभी संभव है कि हम भलाई के कार्य व सर्वकल्याण की भावना रखें। जिस प्रकार कपड़ा मैला होने पर पानी व सर्फ के सहयोग से उज्जवल होता है, उसी प्रकार आत्मा भी कर्मों के कारण मैली हो जाती है जिसे स्वच्छ व निर्मल बनाने के लिए आराधना, साधना, तपस्या कर अन्य प्रवृत्तियों का त्याग करना होगा। आराधना के प्रथम कर्म में भक्तामर तब आराधना में भगवान आदिनाथ की आराधना की गई।
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